Complaint (Hindi)
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शिकायत क्या होती है?
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के अंतर्गत, 'शिकायत' शब्द की परिभाषा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 ("CrPC") की धारा 2(डी) (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 2(ई)) में दी गई है। धारा 2(डी) CrPC के अनुसार, 'शिकायत' का अर्थ है मजिस्ट्रेट के सामने मौखिक या लिखित रूप में दिया गया कोई भी आरोप, जिसका उद्देश्य CrPC के प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई करवाना हो, कि किसी व्यक्ति (ज्ञात या अज्ञात) ने कोई अपराध किया है। CrPC के अंतर्गत दी गई 'शिकायत' की परिभाषा में पुलिस रिपोर्ट शामिल नहीं है। लेकिन, पुलिस अधिकारी द्वारा जमा की गई रिपोर्ट जो जांच के बाद गैर-संज्ञेय अपराध के होने का खुलासा करती हो, एक शिकायत है।
लेकिन, कुछ विशेष कानूनों में, जैसे लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013; उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 आदि में 'शिकायत' की अपनी परिभाषाएं दी गई हैं।
शिकायत की आधिकारिक परिभाषा
कानून में परिभाषित
CrPC की धारा 2(डी) (BNSS की धारा 2(ई)) के अनुसार, शिकायत मजिस्ट्रेट के सामने मौखिक या लिखित रूप में किया गया कोई भी आरोप है, जिसका उद्देश्य CrPC के प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई करवाना हो, कि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है।[1] CrPC की धारा 190 (BNSS की धारा 210) के अनुसार, कोई भी व्यक्ति मजिस्ट्रेट के पास जाकर किसी अपराध के होने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज करा सकता है। शिकायत मिलने पर मजिस्ट्रेट किसी अपराध का संज्ञान लेने के बाद, CrPC की धारा 200 (BNSS की धारा 223) के अनुसार, शिकायतकर्ता और गवाहों की, शपथ दिला कर, बयान लेसकता है।
यदि पुलिस अधिकारी को प्रारंभ में यह विश्वास हो कि मामले में संज्ञेय अपराध हुआ है या जांच से केवल गैर-संज्ञेय अपराध का पता चलता है, तो पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट को CrPC की धारा 2(डी) के तहत शिकायत माना जा सकता है।[2] यदि जांच के शुरू से ही यह स्पष्ट हो कि मामले में केवल गैर-संज्ञेय अपराध हुआ है, तो रिपोर्ट और जांच को CrPC की धारा 2(डी) या 190(1)(ए) के तहत शिकायत नहीं माना जा सकता।
CrPC की धारा 2(डी) के लिए दिया गया स्पष्टीकरण, उन मामलों पर लागू होता है जहां कथित संज्ञेय अपराध की जांच शुरू की जाती है लेकिन जांच के बाद यह पता चलता है कि गैर-संज्ञेय अपराध हुआ है। इसलिए, जहां कोई पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना गैर-संज्ञेय अपराध की जांच शुरू करता है, वहां उसके द्वारा दाखिल की गई रिपोर्ट को शिकायत नहीं माना जा सकता।[3]
CrPC की धारा 190(ए) (BNSS की धारा 210(1)(ए)) के अनुसार, प्रथम श्रेणी का कोई भी मजिस्ट्रेट और इस संबंध में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) द्वारा विशेष रूप से अधिकृत द्वितीय श्रेणी का कोई भी मजिस्ट्रेट, किसी अपराध की ओर इशारा करने वाले तथ्यों की शिकायत प्राप्त होने पर उस अपराध का संज्ञान ले सकते हैं ।
CrPC की धारा 202(1) (BNSS की धारा 225(1)) मजिस्ट्रेट को आरोपी के खिलाफ प्रक्रिया जारी करने को स्थगित करने और या तो खुद मामले की जांच करने या जांच को किसी पुलिस अधिकारी या किसी ऐसे अन्य व्यक्ति से करवाने का अधिकार देती है, जिसे वे इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त समझे, ताकि यह तय किया जा सके कि आगे की कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं। 2005 में CrPC में किए गए संशोधन के बाद, अगर आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट के क्षेत्राधिकार से बाहर के निवास कर रहा हो तो प्रक्रिया जारी करने को स्थगित करना अनिवार्य है।
अगर शिकायतकर्ता और गवाहों के शपथ पर दिए गए बयानों और धारा 202(1) के तहत की गई जांच या पड़ताल (यदि कोई हो तो) के नतीजों पर विचार करने के बाद, मजिस्ट्रेट संतुष्ट है कि आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो CrPC की धारा 203 (BNSS की धारा 226) के तहत मजिस्ट्रेट को शिकायत खारिज करने का अधिकार है। इस अधिकार का उपयोग करने पर मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत खारिज करने का संक्षिप्त कारण दर्ज करना ज़रूरी है।
मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने और CrPC की धारा 203 के तहत शिकायत खारिज नहीं करने के बाद ही, अगले चरण की ओर, यानी CrPC की धारा 204 (BNSS की धारा 227) के तहत प्रक्रिया जारी करके "कार्यवाही की शुरुआत" की ओर आगे बढा जा सकता है।
सरकारी रिपोर्टों में दी गई परिभाषा
भारत के 233वें विधि आयोग की रिपोर्ट, CrPC की धारा 249 और 256 (BNSS की धारा 272 और 279) में संशोधन की सिफारिश करती है, और CPC के आदेश IX की तर्ज पर प्रावधान जोड़ने का सुझाव देती है, जिससे उन मामलों में शिकायतों की बहाली की जा सके, जहां शिकायतकर्ता की गैर-हाजिरी के कारण आरोपी को बरी कर दिया गया हो, और जहां ऐसी गैर-हाजिरी का पर्याप्त कारण रहा हो। रिपोर्ट में कहा गया है कि एक योग्य शिकायत को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि शिकायतकर्ता सुनवाई के समय उपस्थित नहीं हो सका, जबकि ऐसी अनुपस्थिति के लिए सही और पर्याप्त कारण मौजूद था। हालांकि, भारत के 12वें विधि आयोग ने अपनी 141वीं रिपोर्ट में CrPC की धारा 256 (BNSS की धारा 279) में संशोधन की सिफारिश की, जिससे उन आपराधिक मामले की बहाली की जा सके जिनमें शिकायतकर्ता की गैर-हाजिरी के कारण आरोपी को बरी कर दिया गया हो, और जहां गैर-हाजिरी का पर्याप्त कारण रहा हो।[4]
शिकायत से जुड़े कानूनी प्रावधान
विरोध याचिका: 'विरोध याचिका' शब्द को CrPC के तहत परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन, जब पुलिस किसी अपराध के संबंध में अपनी जांच पूरी करती है, तो पुलिस द्वारा यह रिपोर्ट CrPC की धारा 173(2) (BNSS की धारा 193(3)) के तहत मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत की जाती है।
यदि पीड़ित या शिकायतकर्ता पुलिस की रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं हो, तो संबंधित मजिस्ट्रेट के सामने अपनी असंतुष्टि दर्ज करते हुए विरोध याचिका दाखिल कर सकता है और आगे और जांच किए जाने की प्रार्थना कर सकता है। साथ ही पीड़ित व्यक्ति CrPC की धारा 200 और 202 (BNSS की धारा 223 और 225) के तहत आगे की कार्यवाही के लिए भी प्रार्थना कर सकता है।
जांच एजेंसी की अंतिम रिपोर्ट के खिलाफ हर विरोध याचिका को शिकायत नहीं माना जा सकता।[5] लेकिन, अगर शिकायतकर्ता द्वारा यह संकेत दिया जाता है कि उसकी विरोध याचिका को शिकायत के रूप में माना जाए और शिकायत की सभी आवश्यकताएं पूरी होती हो, तो मजिस्ट्रेट इसे शिकायत की तरह मान सकते हैं और इसका संज्ञान ले सकते हैं।[6] यदि मजिस्ट्रेट विरोध याचिका के बावजूद मामले को खारिज करना चाहते हैं, तो शिकायतकर्ता को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए।[7]
शिकायत का खारिज किया जाना: अगर शपथ पर शिकायतकर्ता और गवाहों के बयानों और CrPC की धारा 202 (BNSS की धारा 225) के तहत जांच या पड़ताल (यदि कोई हो) के नतीजों पर विचार करने के बाद, मजिस्ट्रेट की राय है कि आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, तो उन्हें CrPC की धारा 203 (BNSS की धारा 226) के तहत अपने कारणों को दर्ज करते हुए शिकायत खारिज करने का अधिकार है।
दूसरी शिकायत: यदि शिकायतकर्ता की प्रारंभिक शिकायत मजिस्ट्रेट द्वारा CrPC की धारा 203 (BNSS की धारा 226) के तहत खारिज कर दी गई है, तो उन्हीं तथ्यों वाली नई शिकायत केवल असाधारण परिस्थितियों [8]में ही स्वीकर की जा सकती है, जैसे जहां आदेश अपूर्ण रिकॉर्ड पर पारित किया गया हो, या जब पारित किया गया आदेश साफ तौर पर बेतुका, अन्यायपूर्ण हो, या जहां ऐसे कोई नए तथ्य सामने आए हैं को पिछली कार्यवाही में रिकॉर्ड पर नहीं लाए जा सकते थे।[9] इसके अलावा, शिकायतकर्ता की गलती के के कारण शिकायत खारिज किए जाने के मामलों में भी, उन्हीं तथ्यों पर दूसरी शिकायत की अनुमति दी जा सकती है।[10] CrPC की धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज करने का आदेश न तो डिस्चार्ज है और न ही बरी किया जाना है, और इसलिए, ऑटरफॉइस कन्विक्ट या ऑटरफॉइस एक्विट का सिद्धांत इन मामलों में लागू नहीं होता है।[11]
विभिन्न प्रकार की शिकायत
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो शिकायतों को दो श्रेणियों में बांटता है: मौखिक और लिखित । मौखिक शिकायतों में O/C/SHO को बताई गई शिकायतें और संकट के समय फोन पर किए गए कॉल शामिल हैं। लिखित शिकायतों में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भेजी गई शिकायतें, पुलिस द्वारा खुद संज्ञान ले कर शुरू की गई शिकायतें, न्यायालय के सामने की गई शिकायतें आदि शामिल हैं।
नागरिक अपनी शिकायतें अपने राज्य के क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम के ज़रिए ऑनलाइन दर्ज करा सकते हैं।
इसके अलावा, साइबर अपराधों से संबंधित शिकायतें राष्ट्रीय साइबर क्राइम रिपोर्टिंग पोर्टल में दर्ज की जा सकती हैं। [12]महिलाओं और बच्चों के खिलाफ साइबर अपराधों के लिए, शिकायतकर्ता चाहें तो गुमनाम रूप से रिपोर्ट कर सकते हैं या नाम के साथ रिपोर्ट करके उसे ट्रैक कर सकते हैं है। अगर नाम के साथ रिपोर्ट की जाए तो, कुछ जानकारी देना अनिवार्य होता है।
शिकायत और एफआईआर के बीच अंतर
'प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर)' और 'शिकायत' शब्दों के बीच कुछ प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं:
एफआईआर | शिकायत |
CrPC के तहत 'एफआईआर' की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। हालांकि, CrPC की धारा 154 (BNSS की धारा 173) में संज्ञेय मामलों में पुलिस को सूचना देने का प्रावधान है। | 'शिकायत' शब्द CrPC की धारा 2(डी) (BNSS की धारा 2(ई)) के तहत परिभाषित किया गया है। |
संज्ञेय अपराध के होने से संबंधित सूचना किसी भी व्यक्ति द्वारा मौखिक रूप से (जो फिर पुलिस द्वारा लिखित रूप में दर्ज की जाती है) या लिखित रूप में पुलिस को दी जाती है। | किसी व्यक्ति द्वारा मजिस्ट्रेट के सामने मौखिक या लिखित रूप में किया गया आरोप, कि किसी व्यक्ति ने अपराध किया है। |
यह आपराधिक न्याय प्रक्रिया को सक्रिय करने का पहला कदम है और एफआईआर दर्ज होने के बाद पुलिस द्वारा जांच शुरू की जाती है। | जरूरी नहीं कि शिकायत जांच का कारण बने। शिकायत मिलने के बाद यदि मजिस्ट्रेट की राय है कि आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार है, तो पूछताछ का आदेश दे सकते हैं है या जांच का निर्देश दे सकता है। |
एफआईआर केवल संज्ञेय अपराधों के लिए दर्ज की जाती है। | शिकायत मजिस्ट्रेट के समक्ष संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराधों के लिए की जा सकती है। |
एफआईआर पुलिस के सामने दर्ज की जाती है। | शिकायत केवल मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर की जा सकती है। |
आधिकारिक डेटाबेस में शिकायतों से जुड़े आंकड़े
भारतीय दंड संहिता, 1870 के अलावा, विशेष और स्थानीय कानूनों के तहत प्राप्त शिकायतों की कुल संख्या राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा वार्षिक रूप से प्रकाशित की जाती है।
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संदर्भ
- ↑ Visbtua Mitter v. O.F. Poddar, (1983) 4 SCC 701
- ↑ P. Kunhumuhammed v. State of Kerala, 1981 Cri LJ 356 Ker HC
- ↑ Lilies Ali v. State of West Bengal, 1997 Cr LJ 803 (Cal)
- ↑ 12th Law Commission of India, 141st Report on “Need for Amending the Law as regards Power of Courts to Restore Criminal Revisional Applications and Criminal Cases Dismissed for Default in Appearance” [1991].
- ↑ Qasim v. State, 1984 Cr LJ 1677 (All)
- ↑ Ramlakhan Mahto v. Rameshwar Mahto, 1975 Cr LJ 866 (Pat)
- ↑ Bhagwant Singh v. Gommr. of Police, (1985) 2 SCC 537
- ↑ Poonam Chand Jain v. Fazru, AIR 2010 SC 659
- ↑ Pramath Nath Talukdar v. Saroj Ranjan Sarkar, 1962 AIR 876
- ↑ Santokh Singh v. Geetanjali Woolen Pvt Ltd, 1993 Cr LJ 3744; Harish Chand Mittal v. Laxmi Devi, 1996 Cr LJ 4258 (All)
- ↑ Criminal Procedure, R V Kelkar, 6th edition
- ↑ Available at https://cybercrime.gov.in/