FIR - First Information Report (Hindi)
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एफआईआर क्या होती है?
एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट), जैसा कि नाम से पता चलता है, एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें उन अपराधों का पहला विवरण होता है जिन्हें हमारे आपराधिक कानून के तहत संज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह पुलिस द्वारा कथित अपराध के बारे में सूचना प्राप्त होने पर तैयार की जाती है। कथित अपराध की सूचना दर्ज करके पुलिस द्वारा तैयार किया गया संज्ञेय अपराध के बारे में जानकारी देने वाला पहला दस्तावेज है। यह पहला कदम है जिसके बाद आपराधिक न्याय प्रणाली इस मामले में सक्रिय कदम उठाती है।
एफआईआर वह दस्तावेज है जो पुलिस द्वारा शिकायत के तथ्यों की जाँच के बाद तैयार की जाती है। एफआईआर में अपराध और कथित अपराधी का विवरण होता है।
गैर-संज्ञेय अपराधों के रूप में वर्गीकृत किए गए अपराधों के लिए, एफआईआर आवश्यक नहीं है।
एफआईआर की आधिकारिक परिभाषा:
हालांकि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में "प्रथम सूचना रिपोर्ट" की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई है, लेकिन धारा 154 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173) में एफआईआर दर्ज करने से जुड़ी हुई ज़रूरी जानकारी दी गई है:
मोटे तौर पर, एफआईआर में तीन आवश्यक तत्व होते हैं। सीआरपीसी की धारा 154 (बीएनएसएस की धारा 173) के अनुसार, सबसे पहले, सूचना का संबंध संज्ञेय अपराध के घटित होने से होना चाहिए। इसके बाद, यह पुलिस स्टेशन के प्रमुख को मौखिक रूप से दी गई होनी चाहिए। और अंत में, इसे लिखित रूप में उतारा जाना चाहिए और सूचनादाता द्वारा इस पर हस्ताक्षर किए जाने चाहिए, और इसके प्रमुख बिंदुओं को दैनिक डायरी में विधिवत दर्ज किया जाना चाहिए।
एफआईआर के अन्य पहलुओं की ओर जाने से पहले, इस महत्वपूर्ण बिंदु को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि एफआईआर केवल संज्ञेय अपराधों के मामलों में दर्ज की जा सकती है। संज्ञेय अपराध ऐसे अपराध होते हैं जहाँ पुलिस अधिकारी दंड प्रक्रिया संहिता की पहली अनुसूची या किसी अन्य लागू कानून के अनुसार, वारंट की आवश्यकता के बिना आरोपी को गिरफ्तार कर सकता है। आमतौर पर, संज्ञेय अपराध अधिक गंभीर प्रकृति के होते हैं जिनमें एक वर्ष या उससे अधिक की सजा का प्रावधान होता है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) के तहत किए गए संशोधन
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 154 और बीएनएसएस की धारा 173 समान मौलिक सिद्धांतों पर टिके हैं और निम्नलिखित सिद्धांतों को कानूनी मान्यता देते हैं:
जीरो एफआईआर: बीएनएसएस की धारा 173(1) किसी पुलिस स्टेशन के क्षेत्राधिकार की परवाह किए बिना अपराधों के लिए एफआईआर के पंजीकरण की अनुमति देती है, जिसके तहत किसी भी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को मौखिक रूप से या इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा सूचना दी जा सकती है। लेकिन , धारा के तहत में जीरो एफआईआर को जाँच के लिए उपयुक्त क्षेत्राधिकार वाले संबंधित पुलिस स्टेशन को स्थानांतरित करने का प्रावधान नहीं है।
इलेक्ट्रॉनिक एफआईआर (ई-एफआईआर): बीएनएसएस की धारा 173(1)(ii) के तहत इलेक्ट्रॉनिक संचार के माध्यम से ई-एफआईआर को रिकॉर्ड करना अनिवार्य है, जिस पर रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति द्वारा तीन दिनों के भीतर हस्ताक्षर किए जाने हैं।
एफआईआर की प्रति: जबकि सीआरपीसी की धारा 154(2) के अनुसार सूचनादाता को निःशुल्क सूचना की प्रति प्रदान की जानी आवश्यक थी, बीएनएसएस की धारा 173(2) के तहत सूचनादाता या पीड़ित व्यक्ति को भी इस प्रावधान के दायरे में लाया गया है।
प्रारंभिक जाँच: बीएनएसएस की धारा 173(3) निर्धारित करती है कि तीन से सात वर्ष तक की सजा वाले संज्ञेय अपराधों के लिए, प्रभारी पुलिस अधिकारी, पुलिस उपाधीक्षक से नीचे के रैंक के अधिकारी की पूर्व अनुमति से, या तो प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के लिए चौदह दिनों के भीतर प्रारंभिक जाँच कर सकता है या ऐसा मामला मौजूद होने पर जाँच आगे बढ़ा सकता है।
पीड़ित-केंद्रित सुधार: अंत में, सीआरपीसी की धारा 154(1), हालांकि ऐसे स्थान पर एफआईआर दर्ज करने की अनुमति देती है जो पीड़ित के लिए सुविधाजनक हो, लेकिन शुरू में एसिड हमले की महिला पीड़ितों को इसके बाहर रखा गया था। धारा 173(1) ने एसिड हमले के पीड़ितों को शामिल करने के लिए प्रावधानों का विस्तार करके इस चूक को दूर किया।
एफआईआर के ज़रूरी तत्व
एफआईआर एक निर्धारित फॉर्मेट में दर्ज की जाती है और इसमें निम्नलिखित तत्व होते हैं:
- पुलिस स्टेशन का नाम और विवरण जहाँ एफआईआर दर्ज की गई है
- एक निर्धारित एफआईआर संख्या जो जाँच की प्रगति को ट्रैक करने के लिए उपयोग की जाती है
- एफआईआर दर्ज कराने वाले व्यक्ति का नाम और विवरण
- घटना के घटित होने का स्थान, दिनांक और समय
- घटित हुई घटना या किए गए अपराध का विशिष्ट विवरण। शिकायतकर्ता कथित अपराध का एक लिखित विवरण प्रदान कर सकता है जो एफआईआर फॉर्मेट के साथ संलग्न किया जाता है
- प्रासंगिक कानूनों और धाराओं का विवरण जिनके अंतर्गत कथित अपराध आ सकता है
- आरोपी का नाम, यदि ज्ञात हो तो, या आरोपी की पहचान के लिए कोई विवरण

एफआईआर से संबंधित कानूनी प्रावधान
साक्ष्य के तौर पर एफआईआर का महत्व:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 157 (जो अब भारतीय साक्ष्य संहिता की धारा 160 है) के तहत एफआईआर का उपयोग गवाह के बयान के समर्थन में किया जा सकता है । भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 (जो अब बीएसएस की धारा 148 है) के तहत इसका उपयोग गवाह के बयान के खंडन के लिए भी किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 9 (जो अब बीएसएस की धारा 7 है) के तहत, पूछताछ के दौरान, इसका उपयोग आरोपी, चश्मदीद गवाहों और अपराध स्थल की पहचान के लिए किया जा सकता है ।
एफआईआर दर्ज करने से इनकार किए जाने पर क्या किया जा सकता है:
एफआईआर दर्ज करने से अधिकारी द्वारा इनकार किए जाने पर सीआरपीसी की धारा 154(3) (जो अब बीएनएसएस की धारा 173(4) है) के तहत कुछ कानूनी उपाय दिए गए हैं ; सूचना पुलिस अधीक्षक को भेजी जा सकती है और उनके द्वारा कार्रवाई की जा सकती है। यदि पुलिस अधीक्षक को लगता है कि सूचना संज्ञेय अपराध के घटित होने का संकेत देती है, तो वे स्वयं मामले की जांच कर सकते हैं या किसी अधीनस्थ पुलिस अधिकारी को जांच का निर्देश दे सकते हैं।
लेकिन, पुलिस अधीक्षक द्वारा भी मामले का संज्ञान न लेने पर, पीड़ित व्यक्ति मजिस्ट्रेट के सामने जा सकता है, जिन्हें सीआरपीसी की धारा 156(3) (जो अब बीएनएसएस की धारा 175(3) है) के तहत ऐसी जांच का आदेश देने का अधिकार दिया गया है ।[1]
कुछ राज्यों में, एफआईआर न दर्ज करने की शिकायतें राज्य/जिला पुलिस शिकायत प्राधिकरणों (पीसीए) में भी दर्ज की जा सकती हैं। ये सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की अध्यक्षता वाली स्वतंत्र संस्थाएं हैं जो पुलिस के खिलाफ गलत व्यवहार और/या उल्लंघनों की शिकायतों की जांच करने के लिए जिम्मेदार हैं। एफआईआर का पंजीकरण न करना इनमें से एक है। अपनी जांच पूरी करने के बाद, पीसीए राज्य/जिला पुलिस प्रमुख को घटना में एफआईआर दर्ज करने की सिफारिश कर सकती हैं, हालांकि उनकी सिफारिशें हमेशा बाध्यकारी नहीं होती हैं।
चुनिंदा मामलों में एफआईआर दर्ज न करना दंडनीय अपराध
कुछ विशेष अपराधों में एफआईआर दर्ज न करना, संबंधित पुलिस अधिकारी के लिए एक वर्ष तक के कारावास के साथ दंडनीय अपराध बनाया गया है।
- भारतीय दंड संहिता की धारा 166(ए)(सी) इसे एक दंडनीय अपराध बनाती है...
- 2016 में संशोधित, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, की धारा 4 के तहत , लोक सेवक द्वारा कर्तव्य की जानबूझकर अवहेलना एक वर्ष तक के कारावास से दंडनीय अपराध है। लोक कर्तव्य में जाति और जनजाति आधारित अत्याचारों से संबंधित शिकायतों में एफआईआर दर्ज करना और उसमें पीओए अधिनियम की उपयुक्त धारा लगाना शामिल है।
एफआईआर का निरस्तीकरण
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 (जो अब बीएनएसएस की धारा 528 है) उच्च न्यायालयों को अन्य बातों के साथ-साथ एफआईआर या आपराधिक शिकायत को निरस्त करने का अधिकार देती है। एफआईआर अगर बेबुनियाद है, या आरोपी पर झूठा आरोप लगाती है, आरोपी के खिलाफ में प्रथम दृष्टया अपराध नहीं दिखती है, या बुरी मंशा से दाखिल की गई है, तो अदालत एफआईआर को निरस्त कर सकती है।
। न्यायालय ने, हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल[2] के मामले में, किसी भी न्यायालय द्वारा एफआईआर के निरस्तीकरण में पालन किए जाने वाले दिशानिर्देश निर्धारित किए थे, जिनमें उपरोक्त के अलावा ये सभी शामिल हैं: जब न्यायालय के सामने कार्यवाही जारी न रखने के लिए स्पष्ट कानूनी कारण मौजूद हो, जहां आरोप बेतुके या असंभव प्रतीत होते हों, या जब एफआईआर में आरोप केवल एक गैर-संज्ञेय अपराध का संकेत देते हों, जिसके लिए सीआरपीसी की धारा 155(2) (जो अब बीएनएसएस की धारा 174(2) है) के तहत किसी भी जांच के लिए मजिस्ट्रेट का आदेश आवश्यक हो ।
आरोपी को एफआईआर और पुलिस रिपोर्ट उपलब्ध कराना:
सीआरपीसी की धारा 154(2) (बीएनएसएस की धारा 173(2)) के अंतर्गत सूचनादाता को बिना किसी शुल्क के सूचना की एक प्रति निशुल्क देना ज़रूरी था। अब, बीएनएसएस की धारा 173(2) के तहत यह अधिकार सूचनादाता और पीड़ित को भी दिया गया है।
सीआरपीसी की धारा 207 (बीएनएसएस की धारा 230) के तहत, उन मामलों में जहाँ कार्यवाही पुलिस रिपोर्ट के आधार पर शुरू की गई है, पुलिस रिपोर्ट और दर्ज बयानों की प्रति के अलावा, मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपी को प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति देना भी अनिवार्य है।
महिला पीड़ितों के लिए विशेष प्रावधान:
सीआरपीसी की धारा 154(1) (बीएनएसएस की धारा 174(1)) के तहत महिलाओं के विरुद्ध किए जाने वाले कुछ चुनिंदा अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज करने से जुड़ी हुई कुछ विशेष प्रक्रियाएं दी गई हैं। यदि इनमें से किसी अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो ऐसी सूचना को लिखित में दर्ज करने की ज़िम्मेदारी एक महिला पुलिस अधिकारी या किसी अन्य महिला अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए । इसके अलावा, पीड़िता की मानसिक या शारीरिक अक्षमता के कारण, एफआईआर को पीड़िता के घर या उसकी पसंद के स्थान पर, विशेष अनुवादक की उपस्थिति में दर्ज किया जाना चाहिए और इसकी वीडियोग्राफी की जानी है। दिशानिर्देशों का पालन न करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 166ए के तहतदंड दिया जा सकता है।
न्यायालय के निर्णयों के तहत दी गई एफआईआर की परिभाषा:
शून्य एफआईआर:
कोई भी पुलिस थाना, क्षेत्राधिकार क्षेत्र की परवाह किए बिना एफआईआर दर्ज कर सकता है; हालांकि, जाँच सक्षम क्षेत्राधिकार वाले पुलिस थाने द्वारा ही की जाएगी। ऐसी एफआईआर के लिए क्रम संख्या शून्य के रूप में अंकित की जाती है और इसलिए, इन्हें "शून्य एफआईआर" के रूप में जाना जाता है। [3]आंध्र प्रदेश राज्य बनाम पुनाटी रामुलु और अन्य के मामले में, न्यायालय ने कहा है कि "भौगोलिक क्षेत्राधिकार न होने के कारण कांस्टेबल को संज्ञेय अपराध के बारे में सूचना दर्ज करने और उसे अपराध को अंजाम दिए गए इलाके के अधिकार क्षेत्र वाले पुलिस थाने को भेजने से नहीं रोका जाना चाहिए।" एक अन्य निर्णय, सतविंदर कौर बनाम एनसीटी दिल्ली सरकार में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "जाँच समाप्त होने के बाद भी, यदि जाँच अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि एफआईआर की घटना उसके भौगोलिक क्षेत्राधिकार में नहीं हुई है, तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 170 के तहत एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी और मामले को ऐसे मजिस्ट्रेट को भेजना होगा जो अपराध का संज्ञान लेने के लिए सशक्त है।"
प्रारंभिक जाँच और एफआईआर का अनिवार्य पंजीकरण:
सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार[4] में फैसला दिया है कि "यदि सूचना संज्ञेय अपराध के किए जाने का खुलासा करती है तो संहिता की धारा 154 के तहत एफआईआर का पंजीकरण अनिवार्य है, और ऐसी स्थिति में कोई प्रारंभिक जाँच की अनुमति नहीं है। यदि प्राप्त सूचना संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं करती है लेकिन जाँच की आवश्यकता का संकेत देती है, तो केवल यह पता लगाने के लिए प्रारंभिक जाँच की जा सकती है कि क्या संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है या नहीं।"
इस प्रकार, पुलिस प्रारंभिक जाँच केवल तभी कर सकती है, जब दी गई सूचना से यह स्पष्ट न हो कि किया गया अपराध संज्ञेय है या गैर-संज्ञेय। संवैधानिक पीठ ने उन स्थितियों का उल्लेख किया है जहाँ सात दिनों के अंदर प्रारंभिक जाँच की जा सकती है। इनमें वैवाहिक विवाद, पारिवारिक विवाद, वाणिज्यिक अपराध, चिकित्सीय लापरवाही के मामले, भ्रष्टाचार के मामले, और एफआईआर दर्ज कराने में अनुचित विलंब के मामले (खासतौर पर जहाँ तीन महीनों से ज़्यादा की देरी हो), शामिल हैं। लेकिन, ऐसी जाँच प्राप्त सूचना की सत्यता की पड़ताल के लिए नहीं की जा सकती है। 'की जानी चाहिए' शब्द का प्रयोग एफआईआर के पंजीकरण के बारे में पुलिस अधिकारी को अपनी मर्ज़ी से फैसला लेना का नहीं देता है, उन्हें सिर्फ प्रथम दृष्टया रूप से संज्ञेय अपराध के होने की की पुष्टि करनी है।
बीएनएसएस की धारा 173(3) कानून को संशोधित करती है और यह निर्धारित करती है कि तीन से सात वर्ष तक दंडनीय संज्ञेय अपराधों के लिए, प्रभारी पुलिस अधिकारी, पुलिस उप-अधीक्षक के पद से ऊपर के अधिकारी से पूर्व अनुमति लेकर, या तो प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के लिए चौदह दिनों के भीतर प्रारंभिक जाँच कर सकता है या जब ऐसा मामला मौजूद हो तो जाँच को आगे बढ़ा सकता है। इस प्रकार, पहले प्रारंभिक जाँच का उद्देश्य सिर्फ यह पता लगाना था कि सूचना संज्ञेय अपराध किए जाने का खुलासा करती है या नहीं। लेकिन, अब इस नए प्रावधान के अनुसार, प्रारंभिक जाँच के दायरे में यह देखना भी शामिल है कि प्रथम दृष्टया रूप से अपराध का मामला बनता है या नहीं ।
दूसरी एफआईआर
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने संगीता मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में दूसरी एफआईआर की स्वीकार्यता पर विस्तार से चर्चा की है और कहा है कि अगर घटना से जुड़े हुए दूसरी तरह के सबूत पाए जाते हैं तो उसी घटना से जुडी हुई दूसरी एफआईआर दर्ज की जा सकती है। [5] दूसरी एफआईआर उन मामलों में दर्ज की जा सकती है जहाँ दूसरी में जिन आरोपों का उल्लेख किया गया है वो पहली एफआईआर से अलग हो या किसी अन्य लेनदेन से जुड़े हो।[6] दूसरी एफआईआर उन परिस्थितियों में दर्ज नहीं की जा सकती है जहाँ जाँच एजेंसी को उसी अपराध या उसी घटना के संबंध में अतिरिक्त जानकारी प्राप्त होती है और जिसके लिए आरोप पत्र पहले ही दायर किया जा चुका है। द्वितीय एफआईआर की स्वीकार्यता की जाँच पहली एफआईआर के साथ 'समानता' पर टिकी होती है और इस प्रश्न का जवाब कानून और तथ्यों, दोनों के आधार पर दिया जाता है। [7]आरोपी को दोहरी कार्रवाई से बचाने के लिए, समान अपराध के लिए तब तक दूसरी एफआईआर दायर नहीं की जा सकती है,, जब तक कि जाँच के बाद मामले के दायरे को बढ़ाने की ज़रुरत दिखाई न दे , या अलग तथ्यों और परिस्थितियों खा खुलासा होने पर दूसरी एफआईआर की ज़रुरत सामने न आए ।[8]
टेलीफोनिक एफआईआर
एक टेलीफोनिक संदेश जो स्पष्ट न हो या जो सीधे शब्दों में न है उसके आधार पर एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती है, लेकिन, इसे सामान्य डायरी में नोट किया जा सकता है।[9] लेकिन, यदि अपराध की स्पष्ट जानकारी दी गई है और एफआईआर दर्ज करने के लिए ज़रूरी सभी विवरण विधिवत सूचित किए गए हैं, तो फोन कॉल के माध्यम से एफआईआर स्वीकार की जा सकती है।[10]
आधिकारिक दस्तावेजों में एफआईआर की परिभाषा
शून्य एफआईआर और ई-एफआईआर के संबंध में मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी)
पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो, गृह मंत्रालय द्वारा शून्य एफआईआर और ई-एफआईआर पर जारी की गई मानक संचालन प्रक्रिया सभी पुलिस अधिकारियों को, जिसमें थाना प्रभारी, जाँच अधिकारी, और प्रशासनिक कर्मचारी शामिल हैं, एफआईआर के पंजीकरण और प्रबंधन से जुड़ी उचित प्रक्रियाओं पर मार्गदर्शन देती है।
शून्य एफआईआर के लिए प्रमुख कदम:
- किसी भी पुलिस थाने जाएं: शिकायतकर्ता क्षेत्राधिकार की परवाह किए बिना किसी भी पुलिस थाने में रिपोर्ट कर सकते हैं।
- शिकायत दर्ज करें: अगर यह उनके क्षेत्राधिकार से बाहर है तो थाना प्रभारी या ड्यूटी पर मौजूद अधिकारी शिकायत को शून्य एफआईआर के रूप में दर्ज करता है ।
- शून्य एफआईआर दर्ज करें: कानूनी आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद, "शून्य" के साथ एफआईआर पंजीकृत की जाती है। सूचनादाता को निःशुल्क प्रति दी जाती है।
- सही क्षेत्राधिकार को भेजें: शून्य एफआईआर को घटना के क्षेत्राधिकार वाले पुलिस थाने को भेजा जाता है।
- नियमित एफआईआर के रूप में फिर दर्ज करें: शून्य एफआईआर प्राप्त करने वाला पुलिस थाना इसे नियमित एफआईआर के रूप में फिर से दर्ज करता है।
- जाँच अधिकारी को सौंपें: थाना प्रभारी एफआईआर को जाँच अधिकारी को सौंपता है।
- जाँच का संचालन करें: जाँच मानक प्रक्रियाओं के अनुसार आगे बढ़ती है।
- अपडेट दें: शिकायतकर्ता को नियमित अपडेट दी जाती हैं।
ई-एफआईआर का पंजीकरण:
- शुरुआत: शिकायतकर्ता आधिकारिक पुलिस ई-एफआईआर पोर्टल, या पुलिस वेबसाइट पर लॉग इन करता है या शिकायत को इलेक्ट्रॉनिक रूप से भेजता है। शिकायतकर्ता व्यक्तिगत विवरण, घटना की जानकारी और इसके समर्थन में दस्तावेज भेजता है। इलेक्ट्रॉनिक जानकारी ई-एफआईआर रजिस्टर में दर्ज की जाती है।
- सत्यापन और प्रारंभिक जाँच: ई-एफआईआर प्रारंभिक सत्यापन के लिए जाँच अधिकारी को भेजी जाती है। यदि अपराध 3 से 7 वर्ष तक दंडनीय है, तो पुलिस उप-अधीक्षक की पूर्व अनुमति से प्रारंभिक जाँच या तत्काल जाँच की जाती है।
- 3 दिनों के भीतर पंजीकरण: आधिकारिक रूप से दर्ज किए जाने के लिए शिकायतकर्ता को तीन दिनों के भीतर ई-एफआईआर पर हस्ताक्षर करने होंगे। महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों के विरुद्ध अपराधों के लिए विशेष प्रावधान हैं।
- जाँच सौंपना: थाना प्रभारी एफआईआर की समीक्षा करता है और इसे जाँच अधिकारी को सौंपता है।
- जाँच: जाँच अधिकारी मानक प्रक्रियाओं के अनुसार जाँच का संचालन करता है।
भेदभाव रोकने और एफआईआर के अनिवार्य पंजीकरण पर परामर्शिका
- गृह मंत्रालय द्वारा दिनांक 6 फरवरी 2014 को भेजी गई परामर्शिका जो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत, सूचना से संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर एफआईआर के अनिवार्य पंजीकरण से संबंधित है
- गृह मंत्रालय द्वारा दिनांक 10 मई 2013 को भेजी गई परामर्शिका जो अधिकार क्षेत्र की परवाह किए बिना एफआईआर के पंजीकरण और शून्य एफआईआर से संबंधित है
एफआईआर और सामान्य डायरी में नोट किए जाने के बीच अंतर:
सामान्य डायरी (जीडी) और प्रथम सूचना रिपोर्ट में बड़ा अंतर है, जैसा कि ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के मामले में न्यायालय द्वारा स्थापित किया गया था। पुलिस अधिनियम, 1861 की धारा 44 के तहत, पुलिस अधिकारियों को एक सामान्य डायरी बनाए रखनी होती है, जिसमें पुलिस थाने में होने वाली सभी कार्रवाइयों और घटनाओं को कालक्रमानुसार दर्ज किया जाता है, जिसमें गिरफ्तारियाँ, आरोप, जब्ती और सभी ज़रूरी विवरण शामिल होते हैं। हालांकि एफआईआर का सार भी सामान्य डायरी में दर्ज किया जाना होता है, लेकिन सामान्य डायरी में की गई एंट्री में शिकायतकर्ता के हस्ताक्षर की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि एफआईआर में हस्ताक्षर आवश्यक होते हैं। साथ ही साथ, एक एफआईआर पुस्तिका भी बनाए रखी जानी चाहिए, जिसमें अपराध का अधिक विस्तृत विवरण दर्ज किया गया हो, जबकि सामान्य डायरी एंट्री में केवल अपराध का सारांश या बुनियादी तथ्य हो सकते हैं। दोनों को एक साथ तैयार किया जाना चाहिए, और सामान्य डायरी एंट्री में उचित एफआईआर संख्या भी शामिल होनी चाहिए। लेकिन , जैसा कि सीबीआई बनाम तपन कुमार सिंह [11]के मामले में माना गया, पंजीकृत एफआईआर के अभाव में सामान्य डायरी एंट्री को एफआईआर माना जा सकता है यदि वह संज्ञेय अपराध के किए जाने का खुलासा करती हो तो।
आधिकारिक डेटाबेस में एफआईआर
ई-एफआईआर
विभिन्न राज्य सरकारों ने एफआईआर दर्ज कराने और उनकी इलेक्ट्रॉनिक ट्रैकिंग के लिए ई-एफआईआर पोर्टल शुरू किए हैं। जैसा कि नाम से पता चलता है, ई-एफआईआर पुलिस थाने में खुद जाए बिना ऑनलाइन दर्ज की जा सकती है। नीचे दी गई तालिका उन वेबसाइटों को दर्शाती है जिनके माध्यम से एफआईआर ऑनलाइन दर्ज की जा सकती है:

ई-एफआईआर राज्य ई-एफआईआर पोर्टल के माध्यम से दर्ज की जा सकती है, और राज्य के आधार पर, वस्तुओं या मोटर वाहनों की चोरी से संबंधित मामलों के लिए दर्ज की जा सकती है। यह सुविधा अक्सर "नागरिक सेवाएं" की श्रेणी के अंतर्गत पाई जाती हैं।


ई-कोर्ट वेबसाइट पर एफआईआर के आधार पर खोजने की सुविधा
ई-कोर्ट्स सेवा वेबसाइट पर मामलों की स्थिति एफआईआर संख्या के आधार पर देखी और फिल्टर की जा सकती है:
सीबीआई एफआईआर:
केंद्रीय जाँच ब्यूरो और इसके विभिन्न प्रभागों, जिसमें भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो भी शामिल है, उनके माध्यम से दर्ज की गई एफआईआर को सीबीआई वेबसाइट के माध्यम से शाखा और मामला संख्या द्वारा फिल्टर करके ऑनलाइन देखा जा सकता है।

एफआईआर से जुड़े आंकड़े
एनसीआरबी
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा भारतीय दंड संहिता और विशेष स्थानीय कानूनों के तहत राज्यों में एफआईआर के कुल पंजीकरण से जुड़े आंकड़े दिए जाते हैं, जिसमें ई-एफआईआर भी शामिल हैं:

पंजीकृत एफआईआर के लिए उपयोग किए जाने वाले शब्द
रिपोर्ट में इस्तेमाल किए गए 'पंजीकृत मामले', 'रिपोर्ट किए गए मामले', 'मामलों की संख्या', 'अपराधों की संख्या', 'घटनाओं की संख्या', 'घटनाएं' जैसे शब्द पंजीकृत एफआईआर की संख्या दर्शाते हैं।[12]
संदर्भ
- ↑ Sakiri Vasu v. State of UP (2008) 2 SCC 409.
- ↑ State of Haryana v. Bhajan Lal 1992 Supp. (1) SCC 335.
- ↑ Neelu Shrivastava vs State & Ors 2021 SCC OnLine Del 5158
- ↑ Lalita kumari vs Govt of U.P. 2014 2 SCC 1.
- ↑ Sangeeta Mishra v. State of UP and ors. 2024 AHC 139828.
- ↑ Awadesh Kumar Jha alias Akhilesh Kumar Jha and another v. State of Bihar (2016) 3 SCC 8.
- ↑ Anju Chaudhary v. State of Uttar Pradesh and another (2013) 6 SCC 384.
- ↑ TT Antony v. State of Kerala (2001) 6 SCC 181.
- ↑ Ramsinh Bavaji Jadeja v. State of Gujarat 1994 SCC (2) 685.
- ↑ Manu Sharma v. NCT of Delhi (2010) 6 SCC 1.
- ↑ CBI v. Tapan Kumar Singh (2003) 6 SCC 175.
- ↑ https://ncrb.gov.in/sites/default/files/CII-2021/CII%20Methodology%202021.pdf