Commercial court (Hindi)

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वाणिज्यिक न्यायालय क्या होते हैं ?

वाणिज्यिक न्यायालय एक विशेष अदालती व्यवस्था है जो व्यवसाय और व्यापर से जुड़े  लेन-देन से पैदा होने वाले  विवादों को निपटाने के लिए बनाई गई है। उदाहरण के लिए, भारत में, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015[1] के तहत, शुरू में वाणिज्यिक न्यायालय द्वारा सुने जाने वाले मामलों के लिए तय किया गया मूल्य 1 करोड़ रुपये था, लेकिन 2018 में किए गए संशोधनों के बाद, अब इसे घटा कर 3 लाख रुपये कर दिया गया है। ये न्यायालय अनुबंधों, कॉरपोरेट विवादों, बौद्धिक संपदा अधिकारों, बैंकिंग और वित्त, बीमा और व्यापार से संबंधित अन्य मुद्दों के मामलों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। वाणिज्यिक न्यायालयों का मुख्य  उद्देश्य ऐसे विवादों को कुशलता से हल करना है, ताकि आम  दीवानी (सिविल) न्यायालयों की तुलना में ज़्यादा तेज़ी और दक्षता के साथ मामलों का निपटान किया जा सके । इनमें  आमतौर पर आसान बनाई गई प्रक्रियाओं और कड़ी समय-सीमा को लागू किया जाता है  ताकि मुकदमेबाजी रोज़मर्रा की व्यावसायिक गतिविधियों में बेवजह रुकावट  न डाले।

वाणिज्यिक न्यायालय प्रक्रिया के स्तर पर अपनी दक्षता और इनमें नियुक्त किए गए विशेषज्ञ न्यायाधीशों के लिए जाने जाते हैं । इन न्यायालयों में न्यायाधीश अक्सर वाणिज्यिक कानूनों के  विशेष होते हैं, जिससे वे  व्यावसायिक विवादों की जटिलताओं को ज़्यादा बेहतर ढंग से समझ पाते हैं । वाणिज्यिक न्यायालयों की प्रक्रियाओं से जुड़े नियम इस तरह  डिज़ाइन किए जाते हैं, ताकि मामलों का तेज़ी से निपटान किया जा सके। इनमें मामलों के प्रबंधन से जुड़ी सुनवाई, संक्षिप्त निर्णय और याचिकाएं दाखिल करने तथा सुनवाई की कड़ी समय-सीमा जैसे प्रावधान  शामिल हैं। ये न्यायालय मुकदमेबाजी में लगने वाले  समय और लागत को कम करके, व्यापार को बढ़ावा देने वाले  माहौल को पैदा करने  में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिससे व्यावसायिक विवादों को समय पर और निष्पक्ष तरीके से हल किया जाता है ।

वाणिज्यिक न्यायालय की आधिकारिक परिभाषा

अधिनियम के  तहत दी गई  परिभाषा

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 ("अधिनियम")[2] की धारा 2(1)(b) "वाणिज्यिक न्यायालय" को अधिनियम की धारा (3) की उप-धारा (1) के तहत गठित वाणिज्यिक न्यायालय के रूप में परिभाषित करती है।

इस धारा के अनुसार, सरकार अधिसूचना के माध्यम से उच्च न्यायालय के साथ सलाह-मशवरा करने के बाद जिला स्तर के वाणिज्यिक न्यायालय का गठन कर सकती है। जिला स्तर के वाणिज्यिक न्यायालयों के पास 3 लाख से लेकर 1 करोड़ तक के मूल्य वाले वाणिज्यिक विवादों की सुनवाई करने का अधिकार होगा।

‘वाणिज्यिक विवाद’ धारा 2(c) में परिभाषित किए गए हैं, और इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:

1. व्यापारियों, बैंकरों, वित्तीय कारोबारियों और अन्य व्यापारियों के सामान्य लेनदेन, जैसे व्यापारिक दस्तावेजों से जुड़े  हुए लेनदेन, जिसमें ऐसे दस्तावेजों को लागू कयने और इनकी व्याख्या करने की प्रक्रिया शामिल है;

2. माल या सेवाओं का निर्यात या आयात;

3. प्रशासनिक और समुद्री कानून से संबंधित मुद्दे;

4. विमानों, विमान इंजनों, विमान उपकरणों और हेलीकॉप्टरों से संबंधित लेन-देन, जिनमें बिक्री, लीज़िंग और वित्तपोषण शामिल हैं;

5. माल की ढुलाई;

6. निर्माण और बुनियादी सेवाओं से जुड़े अनुबंध, जिनमें टेंडर शामिल हैं;

7. व्यापार या वाणिज्य में विशेष रूप से उपयोग की जाने वाली स्थिर संपत्ति से संबंधित समझौते;

8. फ्रेंचाइज़ी समझौते;

9. वितरण और लाइसेंसिंग समझौते;

10. प्रबंधन और परामर्श समझौते;

11. संयुक्त उद्यम समझौते;

12. शेयरधारक समझौते;

13. सेवा उद्योग, आउटसोर्सिंग सेवाओं और वित्तीय सेवाओं से संबंधित सब्सक्रिप्शन और निवेश समझौते;

14. व्यापारिक एजेंसी और व्यापारिक उपयोग;

15. साझेदारी समझौते;

16. प्रौद्योगिकी विकास समझौते;

17. पंजीकृत और अपंजीकृत ट्रेडमार्क, कॉपीराइट, पेटेंट, डिज़ाइन, डोमेन नाम, भौगोलिक संकेत और सेमीकंडक्टर  इंटीग्रेटेड  सर्किट से संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार;

18. माल की बिक्री या सेवाओं के प्रावधान के लिए समझौते;

19. तेल और गैस भंडार या अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, जिनमें इलेक्ट्रोमैग्नेटिक य स्पेक्ट्रम भी शामिल है;

20. बीमा और पुनर्बीमा सेवा समझौते;

21. उपरोक्त में से किसी से भी संबंधित एजेंसी अनुबंध; और

22.  केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित ऐसे कोई भी अन्य वाणिज्यिक विवाद।

इस अधिनियम के तहत मामला प्रबंधन सुनवाई ("CMH") की सुविधा भी दी गई है, जिसमें न्यायाधीश मुद्दों का दायरा तय करेंगे, सुनवाई के दौरान मुद्दों का  क्रम निर्धारित करेंगे, मुकदमेबाजी के विभिन्न चरणों के पूरा होने की समय-सीमा तय करेंगे, पक्षकारों को वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे, मौखिक बहस के लिए समय आवंटित करेंगे और सुनवाई की तारीखें तय करेगा। इसका उद्देश्य मुकदमे की प्रक्रिया को व्यवस्थित करना है।  इस सुनवाई को सभी पक्षों द्वारा दस्तावेजों की स्वीकृति या अस्वीकृति से जुड़े शपथ पत्र दाखिल करने की तारीख से चार सप्ताह के अंदर किया जाना चाहिए।

सरकारी रिपोर्टों में दी गई परिभाषा

2003 में, भारत के विधि आयोग की 188वीं रिपोर्ट ने खुद से वाणिज्यिक न्यायालय स्थापित करने के विषय पर विचार करते हुए,  उच्च न्यायालयों में जल्दी फैसला देने वाली अदालतें  स्थापित करने का प्रस्ताव रखा।[3] कुछ कमियों की वजह से, विशेष रूप से 'वाणिज्यिक विवाद' के दायरे और परिभाषा से जुड़ी कुछ चिंताओं की वजह से, विधेयक को पुनर्मूल्यांकन के लिए वापस भेजा दिया गया।

2015 में, विधि आयोग की 253वीं रिपोर्ट [4]ने वाणिज्यिक न्यायालयों की प्रणाली को खड़ा करने, उच्च न्यायालयों में वाणिज्यिक न्यायालयों, वाणिज्यिक प्रभागों और वाणिज्यिक अपीलीय प्रभागों की स्थापना करने की सिफारिश की। इसके कारण, उच्च न्यायालय वाणिज्यिक प्रभाग, वाणिज्यिक अपीलीय प्रभाग और वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 लागू किया गया। अधिनियम में 2018 में किए गए संशोधन के ज़रिए वाणिज्यिक न्यायालयों द्वारा सुने जाने वाले विवादों  के मूल्य की सीमाओं को घटाया गया।

वाणिज्यिक न्यायालयों से संबंधित कानूनी प्रावधान

निर्दिष्ट मूल्य

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 2(i) में निर्दिष्ट मूल्य के विचार  को प्रस्तुत किया गया है, जिसे वाणिज्यिक विवाद के मूल्य के रूप में परिभाषित किया गया है।   इसे मुकदमे में किए गए दावों के आधार पर निर्धारित किया जाता है, जिसमें ब्याज, लागत और अन्य आर्थिक पहलू शामिल होते हैं। शुरुआत में, अधिनियम के तहत न्यूनतम  निर्दिष्ट मूल्य 1 करोड़ रुपये तय किया गया था, जिसका अर्थ था कि केवल 1 करोड़ रुपये या उससे अधिक के मूल्य वाले विवादों को वाणिज्यिक न्यायालयों द्वारा सुना जा सकता था। लेकिन, वाणिज्यिक न्यायालय (संशोधन) अधिनियम, 2018 के बाद, संशोधित अधिनियम की धारा 12 के तहत , न्यूनतम निर्दिष्ट मूल्य को 3 लाख रुपये कर दिया गया। इस बदलाव  ने वाणिज्यिक न्यायालयों में लाए जा सकने वाले मामलों के दायरे को काफी बढ़ा दिया है, जिससे अब छोटे और मध्यम व्यवसाय भी  वाणिज्यिक न्यायालयों में मुकदमे दायर कर सकते हैं। निर्दिष्ट मूल्य से संबंधित प्रावधान मामलों की छंटनी करने में मदद करते हैं ताकि सिर्फ तय की गई वित्तीय सीमा वाले विवाद ही  का इन विशेष  न्यायालयों में दायर किए जाए, प्रभावी  न्यायिक प्रक्रियाओं को बढ़ावा मिले और ज़्यादा मूल्य के वाणिज्यिक विवादों का तेज़ी से निपटारा किया जा सके ।

सिविल  प्रक्रिया संहिता में संशोधन

भारत में वाणिज्यिक न्यायालयों की स्थापना के साथ, 1908 की सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) को वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के तहत कई बार संशोधित किया गया। संशोधन विशेष रूप से वाणिज्यिक विवादों के निपटारे की प्रक्रिया को और अधिक सरल बनाने के लिए किए गए थे, और इसलिए प्रक्रिया को कुशल और समय-बद्ध बनाया गया। यह संशोधन केवल वाणिज्यिक न्यायालयों, वाणिज्यिक प्रभागों और वाणिज्यिक अपीलीय प्रभागों पर लागू होते हैं। वाणिज्यिक मुकदमों  की विशेष प्रकृति को ध्यान में रखते हुए सिविल प्रक्रिया के पुराने हो चुके नियमों को बदला गया है। यहां उद्देश्य प्रक्रिया के पर होने वाले  देरी को कम करना और उच्च-मूल्य के वाणिज्यिक विवादों के निपटारे में तेजी लाना है।

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के तहत सीपीसी में किए गए महत्वपूर्ण संशोधन:

1. मामला प्रबंधन सुनवाई: सीपीसी के आदेश XV-A के तहत, मामला प्रबंधन सुनवाई न्यायालय को लिखित दस्तावेज दाखिल करने, मुद्दों का दायरा तय करने और सुनवाई  की समय-सीमा  तय करके मुकदमे की प्रगति का प्रबंधन औरउसे  सुव्यवस्थित करने का अधिकार देती  है। न्यायालय मामला प्रबंधन सुनवाई के दौरान आवेदनों या दस्तावेजों के जल्द निपटारे के लिए भी आदेश पारित कर सकते है। यदि पक्षकार इन सुनवाइयों में तय की गई समय-सीमा का पालन नहीं करते हैं, तो इसके परिणाम वास्तव में गंभीर हो सकते हैं। जैसे मुकदमे का खारिज किया जाना या प्रतिवादी द्वारा बचाव में दिए गए तर्कों को ख़ारिज किया जाना। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि पक्षकार एक निर्धारित समय-सीमा का पालन करें, जिससे बेवजह होने वाली देरी के लिए बहुत कम जगह रहे।

2. संक्षिप्त निर्णय: सीपीसी के आदेश XIII-A में किए गए संशोधन के बाद वाणिज्यिक विवादों में अब संक्षिप्त निर्णय दिए जा सकते हैं, जो सिविल  मुकदमों के पारंपरिक नियमों के ठीक उल्टा है।   अगर कोई महत्वपूर्ण भी तथ्य का मुद्दा जांच किए जाने के लिए बाकी  नहीं रहता हो, तो इस प्रावधान के तहत, न्यायालय को पूरी सुनवाई की ज़रुरत नहीं है। समन जारी किए जाने  के बाद और मुद्दे तय करने से, कोई भी पक्ष संक्षिप्त निर्णय के लिए आवेदन दे सकता है। यहां उद्देश्य ऐसे मामलों को जल्दी निपटाना है जहाँ मामले का नतीजा गैर-विवादित तथ्त्यों पर टिका हो, ताकि अदालत का समय और अन्य संसाधन बचाए जा सके और उनका कहीं और ज़्यादा बेहतर इस्तेमाल किया जा सके।संक्षिप्त निर्णय का प्रावधान ऐसे मामलों को जल्दी निपटाने का एक बहुत शक्तिशाली औज़ार  है जिनमें तथ्यों के आधार पर फैसला बहुत ही साफ़ हो, खासतौर पर जब यह साफ़ हो कि मामले में या प्रवादियों द्वारा बचाव में दिए गए तर्कों में कोई दम नहीं है।

3. लिखित बयान जमा करने के लिए कड़ी समय-सीमा: एक दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव है  आदेश VIII, के नियम 1 के तहत, लिखित बयान जमा करने के लिए बहुत कड़ी समय-सीमा तय किया जाना है। सामान्य प्रक्रिया के तहत 30 दिन की अवधि दी गई है जिसे ज़्यादा से ज़्यादा  90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, लेकिन वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम में, इसके लिए  समन सौंपे जाने की तारीख से 120 दिनों की सख्त सीमा तय की गई है जिसे आगे बढ़ाए जाने की  अनुमति नहीं है। यदि प्रतिवधि इस समय सीमा  में लिखित बयान दाखिल करने में विफल रहते  है, तो वे इसे आगे भी  जमा करने के  सभी अधिकार खो देंगे। इसके कारण , मुकदमे को बार-बार टालने की आम चाल का अब इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

4. खोज और खुलासा: संशोधनों के ज़रिए सीपीसी के आदेश XI के तहत खोज और खुलासे की प्रकिर्याओं में भी सुधार  किए गए हैं। न्यायालय सभी  पक्षों को विवाद से संबंधित सभी दस्तावेजों को, चाहे  उनके समर्थन में या न हों, जल्द से जल्द प्रकट करने के लिए कह सकता है। कानून के अनुसार, खोज के दायरा और तरीके से जुड़ी प्रक्रियाओं को और ज़्यादा व्यापक बनाया गया है, जिसमें  दस्तावेजों को स्वीकार करने या देने से इनकार करने की  स्थिति में  इससे जुड़े शपथपत्र जमा करने की आवश्यकता शामिल है है। इसका मतलब है कि अगर किसी दस्तावेज़ का पहले खुलासा नहीं किया जाता है तो अदालत मामले में उसके इस्तेमाल के  खिलाफ भी फैसला ले सकती है।  इससे  वाणिज्यिक मुकदमों में पूर्ण खुलासे पर ज़ोर देने के ज़रिए, पारदर्शिता और स्पष्टता आएगी , ।

5. अदालत आने से पहले  मध्यस्थता: अधिनियम में धारा 12A के जोड़े जाने के साथ, ऐसे विवादों में जिनमें  तत्काल अंतरिम राहत की ज़रुरत नहीं है , अदालत में आने से पहले  मध्यस्थता को कानूनी  रूप से अनिवार्य बनाया गया है। लेकिन, इसे कानूनी सेवा प्राधिकरण के माध्यम से किया जाना है। मुक़दमा दायर करने से पहले अगर पक्षों के बीच  समझौता होता है तो इससे अदालतों का बोझ कुछ कम होगा इस प्रकार के विवादों को कम समय में निपटने में भी मदद मिलेगी। मध्यस्थता की प्रक्रिया के असफल होने पर, मुकदमा अदालत में दाखिल किया जा सकता है; और तब सीपीसी में लिए गए वाणिज्यिक न्यायालयों से जुड़े सभी संशोधन  लागू होंगे। इस प्रावधान  का उद्देश्य वैकल्पिक विवाद समाधान को बढ़ावा देना है और उन विवादों का तेज़ी से निपटान करना है जिनमें अदालतों की मुख्य भूमिका मध्यस्थ की होती है।

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के तहत सीपीसी में किए गए बदलावों की वजह से ने वाणिज्यिक विवादों से जुड़े  मुकदमों की  प्रक्रिया ज़्यादा प्रभावी और दक्ष हुई है। इसके तहत मामलों के प्रबंधन में तेज़ी लाने और तय की गई समय-सीमा के सख्ती से पालने किए जाने पर ज़ोर दिया गया है।  साथ ही संक्षिप्त निर्णय और अदालते से पहले मध्यस्थता जैसे बदलाव मामलों के जल्द निपटान को बढ़ावा देते हैं। पारदर्शिता, दस्तावेज़ों के तेज खुलासे  और सभी प्रक्रियाओं में जवाबदेही पर दिए गए ज़ोर की वजह से मुकदमों के फैसलों में स्थिरता आई है, जो व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा देते है।

विभिन्न प्रकार के वाणिज्यिक न्यायालय न्यायालय

जिला स्तरीय वाणिज्यिक न्यायालय

इनका अधिकार क्षेत्र अधिनियम की धारा 6 में निर्धारित किया गया है। वाणिज्यिक न्यायालयों के भौगौलिक अधिकार क्षेत्र में पैदा होने वाले निर्दिष्ट मूल्य से अधिक मूल्य वाणिज्यिक विवादों से जुड़े मामले और याचिकाएं वाणिज्यिक न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के दायरे में आएंगी।  इन विवादों का निपटान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 16 से 20 के प्रावधानों के अनुसार किया जाता है, जो व्यावसायिक विवादों पर भी लागू होते हैं।

उच्च न्यायालयों के वाणिज्यिक प्रभाग

इनका अधिकार क्षेत्र वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 7 में तय किया गया है।

अधिनियम की धारा 3(3) के अनुसार, राज्य सरकारें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सहमति से, वाणिज्यिक विवादों में अनुभव रखने वाले एक या अधिक व्यक्तियों को वाणिज्यिक न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर सकती हैं।

आधिकारिक डेटाबेस में वाणिज्यिक न्यायालय

यहाँ उपलब्ध है: https://doj.gov.in/the-national-judicial-data-grid-njdg/

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड में मामलों के प्रकार के अनुसार मुकदमों की लंबित स्थिति से संबंधित डेटा उपलब्ध कराया जाता है, जिसमें वाणिज्यिक मुकदमे भी शामिल हैं।[5]

न्याय विभाग, जो अनुबंध प्रवर्तन संकेतक के लिए नोडल विभाग है, नियमित रूप से पूरे देश में वाणिज्यिक न्यायालयों और उनके कामकाज से संबंधित रिपोर्ट और आंकड़े प्रकाशित करता है।[6] इसके अलावा, यह 3 लाख रुपये तक की  धन राशि के अधिकार क्षेत्र वाले समर्पित वाणिज्यिक न्यायालयों से संबंधित डेटा प्रकाशित भी करता है। इन न्यायालयों की वजह सेने भारत में व्यापार करने के माहौल में सुधार हुआ है और इन मुकदमों की सुनवाई और फैसले सुनाने  में लगने वाला समय भी कम हुआ है।

विधि मामलों का विभाग भी वाणिज्यिक न्यायालयों से संबंधित डेटा प्रकाशित करता है, जिसमें हर  वाणिज्यिक न्यायालय में दायर किए गए, निपटाए गए और लंबित मामलों की संख्या शामिल है।[7] हालांकि, डेटा को आखिरी बार  2023 में अपडेट किया गया था।

यहाँ उपलब्ध है:  https://legalaffairs.gov.in/commercial-court-data-page?page=1

वाणिज्यिक न्यायालय (सांख्यिकीय डेटा) नियम, 2018 [8]और वाणिज्यिक न्यायालय (सांख्यिकीय डेटा) संशोधन नियम, 2020[9] के तहत, वाणिज्यिक न्यायालयों, वाणिज्यिक अपील न्यायालयों, उच्च न्यायालय के वाणिज्यिक प्रभागों और वाणिज्यिक अपील प्रभागों द्वारा डेटा  इकट्ठा करने और उनके प्रकाशन के लिए फॉर्मेट उपलब्ध कराए गए हैं।

इनके अनुसार, उच्च न्यायालयों को निम्नलिखित डेटा इकठ्ठा करना होगा

  1. महीने  में ऑनलाइन दाखिल किए गए मामलों की सूची
  2. महीने में न्यायालय में जिन मामलों का शुल्क ई-भुगतान के ज़रिए जमा किया गया है उनकी सूची
  3. महीने में जिन मामलों में सेवा प्रक्रिया को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से पूरा गया है  उनकी सूची
  4. महीने में जिन मामलों को  रैंडम तरीके से आवंटित किया गया है उनकी सूची
  5. महीने में जिन मामलों में  मामला  प्रबंधन सुनवाई की गई है उनकी  सूची
  6. महीने में निपटाए गए विवादित व्यावसायिक मामलों की सूची
  7. महीने  के व्यावसायिक मामलों का सारांश

वाणिज्यिक न्यायालय (सांख्यिकीय डेटा) संशोधन नियम, 2020 के तहत, उच्च न्यायालयों द्वारा हर महीने  व्यावसायिक मामलों का सारांश रिकॉर्ड करने के लिए फॉर्म 7 दिया गया है। इसके लिए सभी जिला न्यायालयों को महिले के पहले दिन लंबित मामलों की कुल संख्या, महीने के दौरान दायर किए गए मामलों की संख्या, महीने में निपटाए गए मामलों की संख्या और महीने के अंत में लंबित मामलों की संख्या का सारांश उपलब्ध कराना  है। ज़्यादातर उच्च न्यायालय इस डेटा को अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करते हैं। [10]लेकिन, सभी न्यायालय इस नियम का पालन नहीं कर रहे हैं। [11]ठोस जानकारी  की यह कमी विशेष रूप से जिला न्यायाधीश स्तर से नीचे के वाणिज्यिक न्यायालयों में साफ़ तौर पर दिखाई देती  है। [12]

जून 2023 के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वाणिज्यिक न्यायालयों में लंबित वाणिज्यिक मामलों के आंकड़े [यहाँ उपलब्ध है: https://delhihighcourt.nic.in/uploads/CommercialCourt/145031183864b67cb368304.pdf]
जून 2023 के दौरान कर्नाटक में वाणिज्यिक न्यायालयों में लंबित वाणिज्यिक मामलों के आंकड़े [यहाँ उपलब्ध है: https://karnatakajudiciary.kar.nic.in/commercialCourts/ccourts/stat_pdfs/June-2023.pdf]
जून 2023 के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वाणिज्यिक न्यायालयों में लंबित वाणिज्यिक मामलों के श्रेणी-वार आंकड़े : https://delhihighcourt.nic.in/uploads/CommercialCourt/161922613564ac0c3c36859.pdf]

वाणिज्यिक न्यायालय पर किए गए अध्ययन

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015: विधि कानून नीति केंद्र द्वारा किया गया साक्ष्य-आधारित  प्रभाव मूल्यांकन[13]

विधि कानून नीति केंद्र द्वारा किए गए वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के एक साक्ष्य-आधारित  प्रभाव मूल्यांकन में पाया गया कि अधिनियम भारतीय अदालतों से जुड़े  प्रणालीगत मुद्दों को हल करने में विफल रहा है, जिनमें न्यायालयों पर मुकदमों का अत्यधिक बोझ, मुकदमों की बड़ी संख्या वाले इलाकों में  न्यायालयों की कमी और प्रक्रिया की वजह से मामलों के निपटान में देरी जैसे पहलू शामिल हैं।

वाणिज्यिक न्यायालय कितने प्रभावी हैं?[14]

दक्ष इंडिया की अनिंदिता पट्टनायक ने वाणिज्यिक न्यायालयों की प्रभावशीलता के संबंध में एक लेख प्रकाशित किया है। वाणिज्यिक न्यायालय का गठन खासतौर पर जटिल व्यावसायिक विवादों के लिए किया गया था, लेकिन इसके बावजूद फिर भी इनमें सामान्य  सिविल न्यायाधीशों को नियुक्त किया जाता है, जिसके वजह से ये न्यायालय  साधारण न्यायालयों से बहुत अलग नहीं है।  वाणिज्यिक न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अधिनियम में कोई खास  मानदंड तय नहीं किए गए  हैं सिवाय इसके कि   ये न्यायाधीश "व्यावसायिक विवादों से निपटने का अनुभव रखने वाले व्यक्ति" होने चाहिए। बार-बार किए जाने वाले तबादले और न्यायाधीशों को दिए जाने वाले प्रशिक्षण में मौजूद कमियां मौजूदा  वाणिज्यिक न्यायालयों की क्षमता को प्रभावित कर रहे हैं  हैं। पट्टनायक अपने लेख के अंत में मौजूदा व्यवस्था में सुधर लेन के लुक तरीके सूझती हैं।

भारत के  वाणिज्यिक न्यायालय: कानूनी प्रणाली में सुधार के जुड़ी  तीन पहेलियाँ[15]

यह लेख वाणिज्यिक न्यायालयों की प्रभावशीलता की समीक्षा करते हुए यह जानने का प्रयास करता है कि वे  उन उद्देश्यों को पूरा कर पाए हैं  जिनके लिए उन्हें गठित किया गया था। यह लेख  वाणिज्यिक न्यायालयव्यावसायिक न्यायालयों की प्रभावशालिता के प्रदर्शन की समीक्षा करने के लिए मात्रात्मक और गुणात्मक पद्धति की मदद लेता है।  यह उन मानकों के कसौटी पर इन  न्यायालयों की उपयोगिता का मूल्यांकन करता है जिनको पूरा करने की अपेक्षा इन अदालतों से की गई थी। यह लेख इस नतीजे पर पहुंचता है  कि ये अदालतें न सिर्फ मामलों के जल्दी निपटान के अपने  उद्देश्य को  पूरा नहीं कर पाई हैं, बल्कि वाणिज्यिक मामलों के निपटान की गति और  धीमी हो गई है।

भारत में अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक न्यायालयों की शुरुआत: व्यापार करने की आसानी  की कहानी[16]

यह लेख व्यापर करने की आसानी और सीमा-पार के विवादों पर वाणिज्यिक न्यायालयों के प्रभावों का विश्लेषण करने के ज़रिए इन अदालतों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करता है।  अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य विवादों पर विशेष ध्यान देते हुए यह लेख कानूनी प्रणालियों में मौजूद कमियों की ओर इशारा करता है।  सीमा-पर के मामलों में वाणिज्यिक न्यायालयों  के काम करने के तरीके का विश्लेषण करते हुए, विशेष न्यायालयों के ज़रिए प्रणाली में सुधार लाने के इस प्रयास का मूल्यांकन किया गया है।

संदर्भ

  1. https://www.indiacode.nic.in/bitstream/123456789/2156/1/a2016-04.pdf
  2. Available at https://www.indiacode.nic.in/handle/123456789/2156?sam_handle=123456789/1362
  3. यहाँ उपलब्ध है: https://lawcommissionofindia.nic.in/report_seventeenth/
  4. यहाँ उपलब्ध है:https://prsindia.org/files/bills_acts/bills_parliament/2015/Report_No.253_Commercial_Division_and_Commercial_Appellate_Division_of_High_Courts_and__Commercial_Courts_Bill._2015_1.pdf
  5. यहाँ उपलब्ध है: https://doj.gov.in/the-national-judicial-data-grid-njdg/
  6. यहाँ उपलब्ध है: https://dashboard.doj.gov.in/eodb/reports.html
  7. यहाँ उपलब्ध है: https://legalaffairs.gov.in/commercial-court-data-page?page=1
  8. https://upload.indiacode.nic.in/showfile?actid=AC_CEN_3_46_00008_201604_1517807328347&type=rule&filename=statistical.pdf
  9. https://legalaffairs.gov.in/sites/default/files/The%20Commercial%20Courts%20%28Statistical%20Data%20and%20PIMS%29%20Amendment%20Rules%202020.pdf
  10. https://delhihighcourt.nic.in/reports/commercialcourtstatisti ;https://delhihighcourt.nic.in/uploads/CommercialCourt/145031183864b67cb368304.pdf; https://karnatakajudiciary.kar.nic.in/commercialCourts/ccourts/stat_pdfs/June-2023.pd  ; https://delhihighcourt.nic.in/uploads/CommercialCourt/161922613564ac0c3c36859.pdf
  11. भारत: https://legalaffairs.gov.in/commercial-court-data-page दिल्ली: https://delhihighcourt.nic.in/reports/commercialcourt_statistic उत्तराखं  :https://highcourtofuttarakhand.gov.in/pages/display/260-statistical-data-of-commercial-courtscommercial-appellate-division कर्नाटक: https://karnatakajudiciary.kar.nic.in/commercialCourts/ccourts/indexpendingcase.php?ID=A; https://karnatakajudiciary.kar.nic.in/commercialCourts/ccourts/stat_arc.php; https://karnatakajudiciary.kar.nic.in/commercialCourts/ccourts/indexpendingcase.php?ID=C   इलाहाबाद: https://www2.allahabadhighcourt.in/ccourt/ReportsT.jsp त्रिपुरा: https://thc.nic.in/monthly_Statement.html तेलंगाना: https://tshc.gov.in/getCCData मद्रास: https://www.hcmadras.tn.nic.in/CommercialCourt_Cases.htm सिक्किम: https://hcs.gov.in/hcs/CaseStatement?page=1 राजस्थान: https://hcraj.nic.in/commercial-court/# पंजाब और हरियाणा: https://highcourtchd.gov.in/?mod=statistics बंबई: https://bombayhighcourt.nic.in/commercialcourt.php मध्य प्रदेश: https://mphc.gov.in/statistics;+https://mphc.gov.in/commercial-court झारखंड: https://jharkhandhighcourt.nic.in/data-related-commercial-courts आंध्र प्रदेश: https://aphc.gov.in/commercialcourtcases.html गुजरात: https://gujarathighcourt.nic.in/districtCommercialCourts
  12. https://legalaffairs.gov.in/commercial-court-data-page
  13. https://vidhilegalpolicy.in/wp-content/uploads/2019/07/CoC_Digital_10June_noon.pdf
  14. https://www.dakshindia.org/how-effective-are-commercial-courts/
  15. https://clpr.org.in/wp-content/uploads/2020/09/Commercial-Courts-in-India-Three-Puzzles-for-Legal-System-Reform.pdf
  16. https://papers.ssrn.com/sol3/papers.cfm?abstract_id=3479267